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क्वासर हमारे ब्रह्मांड में पाए जाने वाले वे खगोलीय पिण्ड हैं जो सबसे अधिक चमकीले तथा हमसे सबसे अधिक दूरी पर स्थित हैं। 1960 के दशक के प्रारम्भिक दौर में इन पिण्डों को रेडियो तारे (रेडियो स्टार) कहा जाता था। कारण यह था कि ये पिण्ड रेडियो तरंगों के सबसे शक्तिशाली स्रोत पाए गए थे। कुछ समय बाद इन पिण्डों को ‘क्वासर’ कहा जाने लगा। क्वासर वस्तुतः अंग्रेज़ी भाषा के चार शब्दों ‘क्वासी स्टेलर रेडियो सोर्स’ का संक्षिप्त रूप है। हिन्दी में इसका अर्थ होता है ‘‘आभासी तारकीय रेडियो स्रोत’’।‘ अनेक खगोल वैज्ञानिक इन्हें क्यू.एस.ओ. भी कहते हैं जो ‘क्वासी स्टेलर ऑब्जेक्ट्स’ का संक्षिप्त रूप है जिसका हिन्दी में अर्थ होता है ‘आभासी तारकीय पिण्ड’।
विकसित किस्म की रेडियो दूरबीनों तथा प्रकाशीय दूरबीनों द्वारा हाल में किए गए अध्ययनों से जानकारी मिली है कि क्वासर वास्तविक तारे नहीं हैं, परन्तु वे देखने में हू-ब-हू तारे लगते हैं। विस्तृत अध्ययनों से यह भी पता चला है कि तारों जैसे दिखने वाले इन खगोलीय पिण्डों से रेडियो तरंगों का उत्सर्जन उनकी सतह पर उभरे हुए दो गोलाकार स्थानों से होता है। क्वासर हमारी आकाशगंगा से काफी दूर पाए गए हैं।
अभी तक वैज्ञानिकों द्वारा जो अध्ययन किए गए हैं उनसे पता चला है कि क्वासर काफी रहस्यमय खगोलीय पिण्ड हैं। खगोल वैज्ञानिक अभी तक इन पिण्डों को पूरी तरह समझ नहीं पाए हैं। अभी तक निश्चित रूप से सिर्फ इतना ही पता चला है कि ये खगोलीय पिण्ड विशाल मात्रा में ऊर्जा का उत्सर्जन करते हैं। उनकी चमक खरबों सूर्य के बराबर आंकी गई है। कुछ क्वासर तो ऐसे भी हैं जो हमारी संपूर्ण आकाशगंगा से उत्सर्जित ऊर्जा की तुलना में दस से सौ गुना ज़्यादा ऊर्जा उत्सर्जित करते हैं। यह पूरी ऊर्जा क्वासर के जितने बड़े क्षेत्र से उत्सर्जित होती है वह हमारे सौरमंडल के आकार से बड़ा नहीं है।
क्वासर हमारे ब्रह्मांड में स्थित किसी भी अन्य खगोलीय पिण्ड की तुलना में ज़्यादा लाल विस्थापन (रेड शिफ्ट) प्रदर्शित करते हैं। किसी भी खगोलीय पिण्ड की गति तथा दूरी का अनुमान लगाने हेतु वैज्ञानिक लोग उस पिण्ड से उत्पन्न प्रकाश के वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) का अध्ययन करते हैं। यदि इस वर्णक्रम में मौजूद प्रकाश की तरंग लंबाइयां बढ़ती नज़र आएं तो माना जाता है कि वह खगोलीय पिण्ड हमसे दूर हटता जा रहा है। किसी पिण्ड से आने वाले प्रकाश में लाल विस्थापन जितना अधिक होगा, वह पिण्ड उतनी ही अधिक तेज़ रफ्तार से हमसे दूर भाग रहा होगा। चूंकि क्वासर का लाल विस्थापन बहुत अधिक पाया गया है अतः यह स्पष्ट है कि ये पिण्ड हमसे बहुत दूर हैं तथा अत्यन्त तेज़ी से हमसे दूर भागते जा रहे हैं।
खगोल वैज्ञानिकों का विश्वास है कि कुछ क्वासर 2,40,000 किलोमीटर प्रति सेकंड (प्रकाश के वेग का 80 प्रतिशत) के वेग से हमसे दूर हटते जा रहे हैं। खगोलविदों के मतानुसार ब्रह्मांड में जितने खगोलीय पिण्डों की अब तक खोज की गई है, उन सभी की तुलना में क्वासर सबसे अधिक दूरी पर स्थित हैं। वैज्ञानिकों ने दूरी की सबसे बड़ी इकाई के रूप में प्रकाश वर्ष को माना है। एक वर्ष में प्रकाश जितनी दूरी तय करता है उस दूरी को प्रकाश वर्ष कहा जाता है।
खगोलविदों का अनुमान है कि क्वासर हमसे अरबों प्रकाश वर्ष दूर हैं। यानी किसी भी क्वासर से उत्सर्जित जिस प्रकाश को आज हम देख रहे हैं, वह उस क्वासर से अरबों वर्ष पूर्व निकला होगा। इसका मतलब यह है कि आज उन्हें हम जैसा देख रहे हैं, वस्तुतः वे आज से कई अरब वर्ष पूर्व वैसे थे। अतः ऐसी संभावना बहुत अधिक है कि जिस क्वासर को हम देख रहे हैं आज उसका अस्तित्व भी नहीं हैं।
अब एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि क्वासर का निर्माण कैसे होता है? इस सम्बंध में खगोल वैज्ञानिकों द्वारा कई परिकल्पनाएं प्रस्तुत की गई हैं। कुछ खगोलविदों का अनुमान है कि क्वासर का निर्माण कृष्ण विवर (ब्लैक होल) द्वारा त्वरण तश्तरी (एक्सेलेरेशन डिस्क) में पदार्थों के निगलने के कारण होता है। त्वरण तश्तरी में जैसे-जैसे पदार्थ का वेग बढ़ता जाता है, उसका तापमान भी बढ़ता जाता है। पदार्थ के कणों का आपसी टकराव प्रकाश तथा एक्स-रे के अलावा अन्य रूपों में ऊर्जा उत्पन्न करता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि कोई भी कृष्ण विवर प्रत्येक वर्ष हमारे सूर्य के द्रव्यमान के बराबर पदार्थ निगल लेता है।
जब पदार्थ कृष्ण विवर में अपना अस्तित्व खो देता है तो वह असीम मात्रा में ऊर्जा के रूप में रूपान्तरित होकर कृष्ण विवर के उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों से तेज़ी के साथ बाहर निकलता है। खगोलविद इसे ब्रह्माण्डीय फव्वारा (कॉस्मिक जेट) कहते हैं।
परन्तु कुछ खगोलविद क्वासर की उत्पत्ति सम्बंधी उपर्युक्त परिकल्पना से सहमत नहीं हैं। इन खगोलविदों के मुताबिक क्वासर वस्तुतः एक प्रकार की नवजात मंदाकिनी है। चूंकि मंदाकिनियों की उत्पत्ति और विकास की प्रक्रिया के सम्बंध में फिलहाल बहुत कम जानकारी प्राप्त है, अतः यह संभव है कि क्वासर किसी मंदाकिनी के शैशव काल का प्रतिनिधित्व करते हों। यानी हो सकता है कि क्वासर से उत्सर्जित जो ऊर्जा हमें दिखाई पड़ती है वह किसी नवजात तथा सक्रिय मंदाकिनी के क्रोड (कोर) से उत्सर्जित होकर आ रही हो।
कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने क्वासर की उत्पत्ति के सम्बंध में एक तीसरी परिकल्पना प्रस्तुत की है। उनके मतानुसार क्वासर सुदूर अंतरिक्ष में स्थित वे बिंदु हैं जहां नया पदार्थ हमारे ब्रह्मांड में प्रविष्ट हो रहा है।
इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो क्वासर को कृष्ण विवर के ठीक विपरीत माना जा सकता है। परन्तु यह परिकल्पना सिर्फ एक अटकल मात्र है जिसके पीछे कोई सशक्त वैज्ञानिक आधार नहीं है। अधिकांश वैज्ञानिक इस परिकल्पना का समर्थन नहीं करते।
क्वासर की खोज सन 1960 में टी. मैथ्यू तथा ए. सैंडेज़ नामक वैज्ञानिकों द्वारा कन्या तारामंडल में की गई थी। इन खगोलविदों ने इस क्वासर का नाम रखा ‘3क्273’।
फिर तीन साल बाद सन 1963 में देखा गया कि इस खगोलीय पिण्ड का लाल विस्थापन बहुत ही अधिक है। इस पिण्ड के वास्तविक स्वभाव की जानकारी तब प्राप्त हुई जब पता चला कि इसके द्वारा तीव्र ऊर्जा का उत्सर्जन एक छोटे से क्षेत्र से हो रहा है। अब क्वासर की पहचान मुख्य रूप से अत्यधिक लाल विस्थापन के आधार पर ही की जाती है।
अब तक खगोलविदों द्वारा दो हज़ार से अधिक क्वासर की खोज की जा चुकी है। क्वासर की पहचान में हबल अंतरिक्ष दूरबीन से काफी सहायता प्राप्त हुई है।
हालांकि क्वासर वैज्ञानिकों के लिए अभी भी एक रहस्य बने हुए हैं, परन्तु टेक्नॉलॉजी के विकास की गति को देखते हुए कहा जा सकता है कि जल्दी ही वैज्ञानिक क्वासर के सभी रहस्यों पर से पर्दा उठाने में सक्षम हो जाएंगे।
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Thursday, 12 July 2012
About Quaser
About 3D Film
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गहराई देखने की बात को हम एक प्रयोग द्वारा समझ सकते हैं। एक पेंसिल को थोड़ी दूरी पर इस तरह खड़ा रखते हैं कि उसका नुकीला सिरा ऊपर की ओर हो। अब इस पेंसिल के नुकीले सिरे पर दूसरी पेंसिल का नुकीला सिरा टिकाने की कोशिश करते हैं। पहले दोनों आंखें खुली रखकर और फिर एक आंख बंद करके। हम पाते हैं कि जब हमारी दोनों आंखें खुली थीं तब हम उस पेंसिल के नुकीले सिरे को आसानी से ढूंढ़ पाए थे। लेकिन जब एक आंख बंद थी तब नुकीले सिरे को खोजने में परेशानी हुई थी। एक आंख से देखने पर हमें उसकी दूरी का अंदाज़ नहीं लग पाता है और हम दूसरी पेंसिल को थोड़ा दूर या पास टिका देते हैं। यही है 3डी प्रभाव जिसमें गहराई भी निहित होती है।
ह म जब भी 3डी की बात करते हैं तब हमारे दिमाग में सबसे पहले 3डी फिल्मों की तस्वीर उभरती है। हम जब भी 3डी फिल्म देखने जाते हैं तो हमें एक विशेष प्रकार का चश्मा दिया जाता है जो फिल्म देखते समय लगाना होता है। इसका मतलब यह है कि सामान्य आंखों से 3डी फिल्म दिखाई नहीं देती है, इसे देखने के लिए लाल और नीले रंग के चश्मों की आवश्यकता होती है। इससे फिल्मों के दृश्यों में गहराई नज़र आती है। सवाल यह है कि जब हमें सामान्य आंखों से गहराई नज़र आती है तो ऐसा क्यों है कि फिल्म देखते समय बगैर चश्मे के हम गहराई का एहसास नहीं कर पाते?
हमारे चेहरे पर दो आंखें कुछ दूरी पर स्थित होती हैं। इस कारण से हमारे सामने रखी वस्तु को दोनों आंखें थोड़ा अलग-अलग कोण से देखती हैं - बाईं आंख थोड़ा बाईं ओर से तथा दाईं आंख दाईं ओर से देखती है। अब दोनों आंखें अपने द्वारा देखे गए दृश्य का संकेत मस्तिष्क तक पहुंचाती है, और मस्तिष्क इन दोनों दृश्यों को मिलाकर एक चित्र बनाता है जिसके कारण हमें वह वस्तु पूरी दिखाई देती है। चूंकि दोनों आंखों ने थोड़ा अलग-अलग देखा है इसलिए हमें वस्तु की साइड भी दिखती है और हम गहराई का अनुभव करते हैं।
3डी फिल्मों की शुरुआत स्टीरियोस्कोपिक चित्रों से हुई थी। स्टीरियोस्कोपिक चित्र बनाने के लिए एक ही दृश्य के दो चित्र एक ही कैमरे से खींचे जाते हैं। दोनों चित्र कैमरे की स्थिति को थोड़ा बदलकर खींचे जाते हैं। स्थिति को लगभग उतना ही बदला जाता है जितनी हमारी दो आंखों के बीच की दूरी है। अब इन दृश्यों को एक साथ रखकर एक आंख से एक दृश्य को और दूसरी आंख से दूसरे दृश्य को एक साथ देखने की कोशिश करते हैं। एक साथ देखने पर दोनों दृश्यों से मिलकर एक तीसरा चित्र बनता है और इसमें गहराई नज़र आने लगती है। और यह गहराई ही 3डी का एहसास कराती है। दरअसल बाइस्कोप में इसी तरीके का इस्तेमाल किया जाता है।
स्टीरियोस्कोपिक चित्रों में 3डी देखने के लिए आइने का इस्तेमाल भी किया जाता है, इस प्रक्रिया को मिरर स्टीरियोस्कोपी' कहते हैं। इस तकनीक को सबसे पहले सर व्हिटस्टोन ने सन 1828 में खोजा था। इसमें भी दो चित्र कैमरे की स्थिति को उपरोक्तानुसार बदलकर खींचे जाते हैं। फिर इनमें से एक का दर्पण प्रतिबिंब तैयार कर लिया जाता है। अब इन्हें एक-दूसरे से सटाकर रखते हैं और इनके बीच एक आइना रखते हैं। अब एक आंख से एक चित्र और दूसरी आंख से दूसरे चित्र का आइने में दिख रहा प्रतिबिंब देखते हैं। जब इन दोनों चित्रों को इस तरह से एक साथ देखते हैं तो मिलकर जो चित्र बनता है उसमें गहराई या 3डी का एहसास होता है।
इसी के बाद 3डी फिल्मों की शुरुआत हुई। सबसे पहली 3डी फिल्म बवाना डेविल सन 1952 में अंग्रेज़ी भाषा में बनाई गई थी। उसके बाद कई 3डी फिल्में आई हैं।
सामान्य फिल्मों में हमें पर्दे पर एक सपाट दृश्य नज़र आता है। इसमें गहराई का एहसास अन्य कारणों से होता है। जैसे यदि कोई व्यक्ति पेड़ के पीछे से निकल आया है तो हम मानते हैं कि पेड़ के पीछे जगह होगी। इसी प्रकार से यदि कोई ट्रेन कार के मुकाबले छोटी नज़र आती है तो हम मानते हैं कि ट्रेन दूर है क्योंकि हम जानते हैं कि वास्तव में ट्रेन कार से बड़ी होती है और यदि वह छोटी नज़र आ रही है तो यह दूरी के कारण ही होगा। यानी हम दूरियों के अंदाज़ के लिए अन्य सुरागों का सहारा लेते हैं।
दूसरी ओर, 3डी यानी त्रिआयामी फिल्मों के दृश्यों में लंबाई, चौड़ाई के साथ-साथ गहराई भी नज़र आती है। 3डी फिल्में दो कैमरों की मदद से बनाई जाती हैं या एक ही कैमरे में दो चित्र एक साथ खींचने की व्यवस्था होती है। इन फिल्मों को देखने के लिए विशेष प्रकार के लाल व नीले रंग के चश्मों का इस्तेमाल होता है। वैसे अब 3डी फिल्मों की तकनीक में भी बदलाव आया है।
3डी फिल्मों के निर्माण में दो प्रणालियां इस्तेमाल की जाती हैं - ऐनाग्लिफिक और पोलेराइज़्ड।
ऐनाग्लिफिक 3डी प्रणाली द्वारा ब्लैक एंड व्हाइट फिल्में ही बनाई जा सकती हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि क्या फिल्म बनाते समय कैमरों पर अलग-अलग रंग के फिल्टर लगाए जाते हैं या फिल्म दिखाते समय जिन दो प्रोजेक्टर्स का इस्तेमाल किया जाता है, उनमें से एक पर लाल और दूसरे पर नीला फिल्टर लगा होता है। इन फिल्मों को देखने के लिए एक आंख पर लाल व दूसरी पर नीला फिल्टर लगा चश्मा पहनना पड़ता है। लाल रंग के फिल्टर से नीले रंग वाली और नीले रंग के फिल्टर से लाल रंग की तस्वीरें दिखाई देती हैं। यदि आप करके देखेंगे तो पता चलेगा कि दोनों ही तस्वीरें काली दिखाई देंगी। हमारी दोनों आंखों में अलग-अलग प्रतिबिंब बनते हैं और हमारा दिमाग उन्हें मिलाकर त्रिआयामी चित्र बनाता है।
पोलेराइज़्ड 3डी में प्रोजेक्टर पर पोलेराइज़्ड फिल्टर का उपयोग किया जाता है। इसको देखने के लिए भी पोलेराइज़्ड फिल्टर ही उपयोग किए जाते हैं।
जब प्रकाश फिल्टर से गुज़रता है तब ध्रुवण के फलस्वरूप दो अलग-अलग प्रतिबिंब बनते हैं जिनका रंग धूसर या ग्रे होता है। इसके माध्यम से सभी रंगों की 3डी फिल्में बनाई जा सकती हैं। इन फिल्मों को देखने के लिए विशेष किस्म के परावर्तक पर्दे का इस्तेमाल करना पड़ता है। पहले 3डी फिल्में केवल सिनेमाघरों में ही दिखाई जा सकती थीं। लेकिन अब 3डी तकनीक पर आधारित टीवी बाज़ार में आने वाले हैं। सोनी ने 3डी तकनीक पर आधारित टीवी का निर्माण कर लिया है जिसे वह जल्द ही बाज़ार में उपलब्ध कराने वाले हैं।
लेकिन यह अभी नहीं कहा जा सकता कि इस तरह के टीवी को देखने के लिए भी विशेष प्रकार के चश्मों का उपयोग किया जाएगा या नहीं।
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Wednesday, 11 July 2012
Name of Parliament and National Games
Parliament Name of Countrys
Country
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Parliament Name
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Sansad/Parliament
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National
Assembly
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Jatiya Sansad
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National
Peoples Congress
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Tsondu
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Afganistan
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Shora
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Parliament
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Parliament
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Parliament
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Congress
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Wondstag
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Yuan
|
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Daet
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Israil
|
Neset
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Maldeep
|
Majlis
|
Span
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Cortes
|
Rastriya
Panchayat
|
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Dyuma
|
|
National
Assembly
|
|
Majlis
|
|
Malesiya
|
Diwan Nigara
|
fedral
Assembly
|
|
Grand National
Assembly
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National Games OF Countries
Country
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Games
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Pato
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Sloop
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Kabaddi
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Capoeira
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Ice Hockey
(winter), Lacrosse (summer)
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Chilean rodeo
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Tejo
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Charrería
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|
Tae Kwon Do
|
|
Arnis
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Puerto
|
Rico Paso fino
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Volleyball
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|
Gaucho
|
|
Buzkashi
|
|
Yacht racing
|
|
Cricket
|
|
Cricket
|
|
Cricket
|
|
Archery
|
|
Table Tennis
|
|
Football
|
|
Baseball
|
|
Dominican
|
Republic
Baseball
|
Pesäpallo
|
|
Cricket
|
|
Cricket
|
|
Field hockey
|
|
Gaelic games
|
|
Cricket
|
|
Basketball
(summer sport)
|
|
Ice hockey
(winter sport)
|
|
Football
|
|
Rugby
|
|
Skiing
|
|
Field Hockey
|
|
Paleta Frontón
|
|
Skiing
|
|
Shooting,
Gymnastics
|
|
Wrestling
& Jereed
|
|
Baseball
|
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