Thursday 12 July 2012

About Quaser


 क्वासर?
क्वासर हमारे ब्रह्मांड में पाए जाने वाले वे खगोलीय पिण्ड हैं जो सबसे अधिक चमकीले तथा हमसे सबसे अधिक दूरी पर स्थित हैं। 1960 के दशक के प्रारम्भिक दौर में इन पिण्डों को रेडियो तारे (रेडियो स्टार) कहा जाता था। कारण यह था कि ये पिण्ड रेडियो तरंगों के सबसे शक्तिशाली स्रोत पाए गए थे। कुछ समय बाद इन पिण्डों को ‘क्वासर’ कहा जाने लगा। क्वासर वस्तुतः अंग्रेज़ी भाषा के चार शब्दों ‘क्वासी स्टेलर रेडियो सोर्स’ का संक्षिप्त रूप है। हिन्दी में इसका अर्थ होता है ‘‘आभासी तारकीय रेडियो स्रोत’’।‘ अनेक खगोल वैज्ञानिक इन्हें क्यू.एस.ओ. भी कहते हैं जो ‘क्वासी स्टेलर ऑब्जेक्ट्स’ का संक्षिप्त रूप है जिसका हिन्दी में अर्थ होता है ‘आभासी तारकीय पिण्ड’
विकसित किस्म की रेडियो दूरबीनों तथा प्रकाशीय दूरबीनों द्वारा हाल में किए गए अध्ययनों से जानकारी मिली है कि क्वासर वास्तविक तारे नहीं हैं, परन्तु वे देखने में हू-ब-हू तारे लगते हैं। विस्तृत अध्ययनों से यह भी पता चला है कि तारों जैसे दिखने वाले इन खगोलीय पिण्डों से रेडियो तरंगों का उत्सर्जन उनकी सतह पर उभरे हुए दो गोलाकार स्थानों से होता है। क्वासर हमारी आकाशगंगा से काफी दूर पाए गए हैं।
अभी तक वैज्ञानिकों द्वारा जो अध्ययन किए गए हैं उनसे पता चला है कि क्वासर काफी रहस्यमय खगोलीय पिण्ड हैं। खगोल वैज्ञानिक अभी तक इन पिण्डों को पूरी तरह समझ नहीं पाए हैं। अभी तक निश्चित रूप से सिर्फ इतना ही पता चला है कि ये खगोलीय पिण्ड विशाल मात्रा में ऊर्जा का उत्सर्जन करते हैं। उनकी चमक खरबों सूर्य के बराबर आंकी गई है। कुछ क्वासर तो ऐसे भी हैं जो हमारी संपूर्ण आकाशगंगा से उत्सर्जित ऊर्जा की तुलना में दस से सौ गुना ज़्यादा ऊर्जा उत्सर्जित करते हैं। यह पूरी ऊर्जा क्वासर के जितने बड़े क्षेत्र से उत्सर्जित होती है वह हमारे सौरमंडल के आकार से बड़ा नहीं है।
क्वासर हमारे ब्रह्मांड में स्थित किसी भी अन्य खगोलीय पिण्ड की तुलना में ज़्यादा लाल विस्थापन (रेड शिफ्ट) प्रदर्शित करते हैं। किसी भी खगोलीय पिण्ड की गति तथा दूरी का अनुमान लगाने हेतु वैज्ञानिक लोग उस पिण्ड से उत्पन्न प्रकाश के वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) का अध्ययन करते हैं। यदि इस वर्णक्रम में मौजूद प्रकाश की तरंग लंबाइयां बढ़ती नज़र आएं तो माना जाता है कि वह खगोलीय पिण्ड हमसे दूर हटता जा रहा है। किसी पिण्ड से आने वाले प्रकाश में लाल विस्थापन जितना अधिक होगा, वह पिण्ड उतनी ही अधिक तेज़ रफ्तार से हमसे दूर भाग रहा होगा। चूंकि क्वासर का लाल विस्थापन बहुत अधिक पाया गया है अतः यह स्पष्ट है कि ये पिण्ड हमसे बहुत दूर हैं तथा अत्यन्त तेज़ी से हमसे दूर भागते जा रहे हैं।
खगोल वैज्ञानिकों का विश्वास है कि कुछ क्वासर 2,40,000 किलोमीटर प्रति सेकंड (प्रकाश के वेग का 80 प्रतिशत) के वेग से हमसे दूर हटते जा रहे हैं। खगोलविदों के मतानुसार ब्रह्मांड में जितने खगोलीय पिण्डों की अब तक खोज की गई है, उन सभी की तुलना में क्वासर सबसे अधिक दूरी पर स्थित हैं। वैज्ञानिकों ने दूरी की सबसे बड़ी इकाई के रूप में प्रकाश वर्ष को माना है। एक वर्ष में प्रकाश जितनी दूरी तय करता है उस दूरी को प्रकाश वर्ष कहा जाता है।
खगोलविदों का अनुमान है कि क्वासर हमसे अरबों प्रकाश वर्ष दूर हैं। यानी किसी भी क्वासर से उत्सर्जित जिस प्रकाश को आज हम देख रहे हैं, वह उस क्वासर से अरबों वर्ष पूर्व निकला होगा। इसका मतलब यह है कि आज उन्हें हम जैसा देख रहे हैं, वस्तुतः वे आज से कई अरब वर्ष पूर्व वैसे थे। अतः ऐसी संभावना बहुत अधिक है कि जिस क्वासर को हम देख रहे हैं आज उसका अस्तित्व भी नहीं हैं।
अब एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि क्वासर का निर्माण कैसे होता है? इस सम्बंध में खगोल वैज्ञानिकों द्वारा कई परिकल्पनाएं प्रस्तुत की गई हैं। कुछ खगोलविदों का अनुमान है कि क्वासर का निर्माण कृष्ण विवर (ब्लैक होल) द्वारा त्वरण तश्तरी (एक्सेलेरेशन डिस्क) में पदार्थों के निगलने के कारण होता है। त्वरण तश्तरी में जैसे-जैसे पदार्थ का वेग बढ़ता जाता है, उसका तापमान भी बढ़ता जाता है। पदार्थ के कणों का आपसी टकराव प्रकाश तथा एक्स-रे के अलावा अन्य रूपों में ऊर्जा उत्पन्न करता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि कोई भी कृष्ण विवर प्रत्येक वर्ष हमारे सूर्य के द्रव्यमान के बराबर पदार्थ निगल लेता है।
जब पदार्थ कृष्ण विवर में अपना अस्तित्व खो देता है तो वह असीम मात्रा में ऊर्जा के रूप में रूपान्तरित होकर कृष्ण विवर के उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों से तेज़ी के साथ बाहर निकलता है। खगोलविद इसे ब्रह्माण्डीय फव्वारा (कॉस्मिक जेट) कहते हैं।
परन्तु कुछ खगोलविद क्वासर की उत्पत्ति सम्बंधी उपर्युक्त परिकल्पना से सहमत नहीं हैं। इन खगोलविदों के मुताबिक क्वासर वस्तुतः एक प्रकार की नवजात मंदाकिनी है। चूंकि मंदाकिनियों की उत्पत्ति और विकास की प्रक्रिया के सम्बंध में फिलहाल बहुत कम जानकारी प्राप्त है, अतः यह संभव है कि क्वासर किसी मंदाकिनी के शैशव काल का प्रतिनिधित्व करते हों। यानी हो सकता है कि क्वासर से उत्सर्जित जो ऊर्जा हमें दिखाई पड़ती है वह किसी नवजात तथा सक्रिय मंदाकिनी के क्रोड (कोर) से उत्सर्जित होकर आ रही हो।
कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने क्वासर की उत्पत्ति के सम्बंध में एक तीसरी परिकल्पना प्रस्तुत की है। उनके मतानुसार क्वासर सुदूर अंतरिक्ष में स्थित वे बिंदु हैं जहां नया पदार्थ हमारे ब्रह्मांड में प्रविष्ट हो रहा है।
इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो क्वासर को कृष्ण विवर के ठीक विपरीत माना जा सकता है। परन्तु यह परिकल्पना सिर्फ एक अटकल मात्र है जिसके पीछे कोई सशक्त वैज्ञानिक आधार नहीं है। अधिकांश वैज्ञानिक इस परिकल्पना का समर्थन नहीं करते।
क्वासर की खोज सन 1960 में टी. मैथ्यू तथा ए. सैंडेज़ नामक वैज्ञानिकों द्वारा कन्या तारामंडल में की गई थी। इन खगोलविदों ने इस क्वासर का नाम रखा ‘3क्273’।
फिर तीन साल बाद सन 1963 में देखा गया कि इस खगोलीय पिण्ड का लाल विस्थापन बहुत ही अधिक है। इस पिण्ड के वास्तविक स्वभाव की जानकारी तब प्राप्त हुई जब पता चला कि इसके द्वारा तीव्र ऊर्जा का उत्सर्जन एक छोटे से क्षेत्र से हो रहा है। अब क्वासर की पहचान मुख्य रूप से अत्यधिक लाल विस्थापन के आधार पर ही की जाती है।
अब तक खगोलविदों द्वारा दो हज़ार से अधिक क्वासर की खोज की जा चुकी है। क्वासर की पहचान में हबल अंतरिक्ष दूरबीन से काफी सहायता प्राप्त हुई है।
हालांकि क्वासर वैज्ञानिकों के लिए अभी भी एक रहस्य बने हुए हैं, परन्तु टेक्नॉलॉजी के विकास की गति को देखते हुए कहा जा सकता है कि जल्दी ही वैज्ञानिक क्वासर के सभी रहस्यों पर से पर्दा उठाने में सक्षम हो जाएंगे।

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